"स्तंभ 157"
*"उन्मादी क्रांति"*
अभी कुछ ही महीने पहले नोएडा की पॉश सोसाइटी में एक सिक्योरिटी गार्ड के साथ घटी घटना ने देश भर में लोगों को अचंभित कर दिया थे, सोशल मीडिया पर नेटीजेंस के रोष का कारण बनी इस घटना के पहलू हैरान करने वाले थे, जिसके सामने आने के उपरांत इसकी वास्तविकता ने देश में इस चर्चा को भी हवा दे दी है कि एक समाज के रूप में भाषाई या क्षेत्रीय आधार पर की जाने वाले घृणा की जड़े हमारे समाज में आखिर कितनी गहरी हैं, यह भी कि क्या जातिगत और क्षेत्रीय आधार पर किए जाने वाला भेदभाव सदैव ही हमारे समाज में विधमान रहा है या फिर ये किसी षड़यंत्र के तहत था कि इसे सुनियोजित रूप से भारत मे पोषित किया गया है। ऐसे में आवश्यक है कि ऐसे विषयों की ऐतिहासिक पृष्टभूमि की विवेचना की जाए।
तो दरअसल कम्युनिस्टों (वामपंथियों) की एक स्थापित नीति है कि जहां कहीं भी वे सत्ता में नहीं, वहां हिंसा के बल पर सत्ता कब्जाने के संघर्ष में वे समाज में मौजूद भेदभाव की खाई को गहरी करते आए हैं, अब चाहे यह भेदभाव जाति, लिंग, धार्मिक अथवा क्षेत्रीय आधार पर ही क्यों ना हो वामपंथी इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते और मोटे तौर पर उनका प्रयास समाज की इन फाल्ट लाइंस को और गहरा कर उसमें तथाकथित क्रांति की नींव को मजबूत करना रहा है।
भारत के संदर्भ में बात करें तो कम्युनिस्टों की यह नीति भारत के लिए भी अपवाद नहीं और भारत में अपने प्रादुर्भाव के साथ ही कम्युनिस्टों ने इस नीति का भरपूर अनुसरण भी किया है, इतिहास इसके प्रमाणिकता की पुष्टि भी करता है।
इस संदर्भ में सबसे बड़ा योगदान तो उन कम्युनिस्ट चाटुकार इतिहासकारों का है जिन्होंने उन्मादी क्रांति के सुखद भविष्य की कल्पना में ऐतिहासिक रूप से रिक्त पड़े पन्नो पर लाल स्याही पोतने में कोई कसर नहीं छोड़ी, विदेशी विचारों के लिए समर्पण भाव ऐसा की अपनी ही सभ्यता के गौरवशाली अतीत को भुलाकर इन्होंने भारतीय भूखंड को खंडित करने में अतुलनीय योगदान दिया।
स्वतंत्रता के उपरांत ये यही लोग थे जिनके कंधों पर ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन विद्वेषित मानसिकता के साथ कार्य कर रहे अंग्रेज इतिहासकारों की विरासत का भार रहा, विडंबना तो यह रही कि निजी राजनीतिक स्वार्थों की अभिपूर्ती के लिए तत्कालीन सरकारों ने ना केवल इन भ्रष्ट इतिहासकारों की हौसलाअफजाई की अपितु मोटे तौर पर इनके कुंठित अवलोकन को ही भारत की औपचारिक शिक्षा नीति के रूप में भी आगे बढ़ाया, परिणामस्वरूप देश भर में क्रमशः ऐसी पीढ़ियों के निर्माण हुआ जो अपने ही जड़ो को लेकर सशंकित था, जो यह सोचने पर विवश था कि क्या मुग़लो और अंग्रेजों से पूर्व एक राष्ट्र के रूप में हम कभी एकत्रित थे भी अथवा नहीं।
क्या होता यदि मुग़लो और अंग्रेजो ने हम पर शासन ना किया होता, फिर ताजमहल, लाल किला, विक्टोरिया मेमोरियल, राष्ट्रपति भवन के अतिरिक्त हमारी शिल्पकला की वैश्विक पहचान का क्या होता, आर्यन-द्रविडं के भेद का क्या, यहां तक कि क्या इस्लामिक आक्रांताओं के पूर्व वर्तमान में बहुसंख्यक समाज की एक समुदाय के रूप में वास्तविक पहचान थी भी अथवा नहीं।
ये कुछ चुनींदा विषय हैं, मूल सूची तो बेहद विस्तृत है जिनमे वर्ण व्यवस्था और वर्तमान के जातिवाद की समानता से लेकर लिंग के आधार पर स्त्रियों के साथ भेदभाव एवं क्षेत्रीय भेदभाव की अनेकों विद्वेषित अवधारणाएं हैं, इसमें भी संशय नहीं कि ये सब कुछ यकायक अथवा विरोधाभासी अवलोकन का परिणाम ना होकर एक सुनियोजित षड़यंत्र का ही भाग है जिसके परिणामस्वरूप विश्व की सबसे पुरानी सांस्कृतिक धरोहर की अविरल धारा के प्रवाह को सुनिश्चित करने वाले राष्ट्र में ऐसी बेतुकी अवधारणाएं अपनी जड़ें मजबूत कर के बैठी हैं।
विडंबना तो यह है कि कम्युनिस्टों की इन भ्रांतियों के सतत दुष्प्रचार ने वर्तमान में क्षेत्रवाद और जातिगत आधार पर राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों को भी इन विद्वेषित अवधारनाओं के इर्दगिर्द अपनी राजनीतिक रेखा खींचने को विवश किया है, यही कारण है कि अपनी राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए कूटनीतिक तौर पर इसे बढ़ावा देने में ये राजनीतिक दल कोई कसर भी नहीं छोड़ते। बिहार के जातिगत समीकरण से लेकर तमिलनाडु में आर्यन द्रविडं अवधारनाओं को गाहे बगाहे चुनावों में हवा देने इनकी इसी विवशता अथवा स्वीकारता का परिचायक रहा है।
खैर इसमें भी संशय नहीं कि सोशल मीडिया के इस दौर में इन बेतुकी बेबुनियाद अवधारणाएं तार्किक रूप से औंधे-मुँह गिर रही हैं और इसके प्रभाव को अब केंद्रीय राजनीति में आए सकारात्मक परिवर्तन से समझा भी जा सकता है,
सबसे बड़ा परिवर्तन तो उस युवा पीढ़ी के बीच हुआ है जिसके भविष्य के साथ नए भारत की मजबूत आधारशिला रखी जानी है, मोटे तौर पर ये वर्ग अब दिग्भ्रमित नहीं दिखाई देता अपितु इसके विपरीत इसे अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गौरव की अनुभूति होती है, ये सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उस मूल अवधारणा में विश्वास दिखाने लगा है जिसकी बुनियाद पर हमारे पुरखो ने कभी भरतभूमि का स्वर्णिम इतिहास रचा था। हां इतना अवश्य है कि राष्ट्र के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इस समर में अभी एक राष्ट्र के रूप में हमे लंबी यात्रा तय करनी है
हालांकि उससे पहले ये आवश्यक है कि हम ये जान लें कि इन दिग्भ्रमित करने वाली विद्वेषित अवधारणाएं गढ़ने वाले तथा इन्हें पोषित करने वाले लोग आखिर हैं कौन और इनका वास्तविक उद्देश्य आखिर है क्या, कुल मिलाकर एक राष्ट्र के रूप में हमें इन्हें इनकी जड़ो से पहचानना होगा, तभी शायद हमें इस कम्युनिस्ट भ्रामक तंत्र द्वारा बोए गए बीजों से मुक्ति मिल सकती है, तभी शायद एक समाज, एक संस्कृति, एक राष्ट्र के रूप में हम इसे जड़ से मिटाने ने सफल रहेंगे।
हमें ये स्मरण रखना होगा कि हमारी गौरवशाली संस्कृति के समृद्ध इतिहास से लेकर हमारे संविधान निर्माताओं तक ने एक राष्ट्र के रुप मे हमें क्षेत्रीय, भाषाई, लिंग, जाति अथवा पंथ के आधार पर भेदभाव से विमुक्त रखा है, इसलिए हम भारत के लोगों को चाहिए कि विदेशी विचारधारा पोषित तंत्र द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम के किसी भी स्वरूप का भाग बनना मूल रूप से वैश्विक पटल पर अपने गौरवशाली अतीत को पुनर्स्थापित करने के हमारे प्रयासों को ही कमजोर करेगा।
जय जय भारत ।
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