"स्तम्भ - 155"

हम वैचारिक आतंकवाद की जद में है ! 
 
बात 1960 के दशक की है, उस दौर में विश्व की धुरी रहे सोवियत संघ एवं उसे चुनौती देते संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच सुपरपावर बनने की प्रतिस्पर्धा अपने चरम पर थी। वैश्विक राजनीति का ये वो दौर था जब मूलतः दुनिया भर के देश दो भागों में बंट रहे थे, भारतीय उपमहाद्वीप में भी दोनों ही शक्तिशाली राष्ट्र अपनी-अपनी पैठ मजबूत करने में लगे थे। इस क्रम में जहां अमेरिका भारत से पृथक होकर बने पाकिस्तान के साथ अपनी नजदीकियां बढ़ा रहा था तो वहीं दूसरी ओर भारत स्वभाविक रूप से सोवियत संघ के नजदीक था। स्वतंत्रता के उपरांत अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास कर रहे भारत को उस काल में सोवियत संघ ने सहायता भी की थी हालांकि विचारधारा के नाम पर इसके अपने कुछ दुष्परिणाम भी थे जो आने वाले वर्षों में एक राष्ट्र के रूप में भारत के डिस्कोर्स को प्रभावित करने वाले थे।

दरअसल यह तभी था जब भारतीय नौकरशाही से लेकर बड़े-बड़े शिक्षण संस्थानों में कम्युनिस्टों ने अपनी घुसपैठ को बेहद मजबूत कर लिया, हालांकि इस वैचारिक घुसपैठ का दायरा केवल शिक्षण संस्थानों एवं नौकरशाही तक सीमित नहीं था अपितु इसकी जद में भारतीय सिनेमा से लेकर खेल जगत, राजनीतिक दल, गैर सरकारी संस्थाएं, कथित सिविल सोसाइटी, यहां तक कि विशुद्ध रूप से मानव सेवा के नाम पर गठित की गई मानव अधिकार संस्थानों में भी थी, कम्युनिस्टों की यह योजना इतनी सुनियोजित थी कि आज दशकों बाद भी यह तंत्र दीमक की तरह भारत को भीतर से खोखला करने पर आमदा है और दशको बाद भी एक राष्ट्र के रूप में हम इस वैचारिक आतंकवाद को तिलांजलि देने में असमर्थ साबित हो रहे हैं।

तो ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि स्वतंत्रता के उपरांत एक राष्ट्र के रूप में वैश्विक पटल पर आत्मनिर्भरता के साथ अपने सामर्थ्य का लोहा मनवाने के क्रम में मजबूत कदम बढ़ा रहे भारत को वैचारिक आतंकवाद के इस तंत्र के दमन में अब तक आखिर सफलता क्यों नहीं मिली, तो मूलतः भारत के लिए इस राह में दो- तीन मुख्य रोड़े हैं जिसने अब तक एक राष्ट्र के रूप में उसे अपने मूल विचारों को व्यवहारिकता के साथ लागू करने और अपनी औपचारिक नीति के रूप में अपनाने के दिशा में निरंतर बाधाएं उत्पन्न की हैं।

दरअसल 60 के दशक में भारतीय संस्थानों एवं सरकारी तंत्र में मजबूती से घुसपैठ करने वाले कम्युनिस्ट विचार ने इन आयामों के साथ ही साथ न्यायिक तंत्र एवं मीडिया जगत में भी जबरदस्त घुसपैठ की, इन दोनों ही आयामों में की गई घुसपैठ कालांतर में वैचारिक रूप से भारत को ना केवल सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाली थी अपितु ये इसी के बिनाह पर था कि यह तंत्र समाज में अपनी विषाक्त विचारधारा को लोकतांत्रिक व्यवस्था के खामियों के नाम पर प्रसारित करने में आंशिक रूप से सफल भी हुआ।

यह इसी वैचारिक घुसपैठ की त्रासदी रही कि इसने समान अधिकारों को सुनिश्चित करने वाले लोकतांत्रिक व्यवस्था में वर्ग विशेष के आधार पर दोहरे मापदंडों को बढ़ावा दिया, यह इसी के कारण हुआ कि आदिकाल से तार्किक विमर्शों को गढ़ने एवं उन पर वाद-विवाद करने की स्वतंत्र परंपरा का निर्बाध रूप से निर्वहन कर रही संस्कृति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दोहरे मापदंड तय किए गए, एक ऐसा इकोसिस्टम तैयार किया गया जिसमें किसी एक वर्ग विशेष की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तो सर्वोपरि रखा गया जबकि दूसरे को इसके लिए समय-समय पर कीमत चुकानी पड़ी हो, इसमें भी संशय नहीं की मीडिया जगत ने निर्विवाद रुप से इस दोहरे चरित्र को सिर माथे पर ढ़ोते हुए इसका नेतृत्व किया है।

इसे ऐसे समझें कि किसी वर्ग विशेष के व्यक्ति अथवा समूह को लेकर न्यायसंगत कार्यवाही के विरुद्ध एक ही झटके में भारत से लेकर वैश्विक मीडिया का एक तंत्र कार्यवाही को गलत बताने एवं इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अथवा धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन बताकर इसपर पूरी शक्ति से ढ़ोल पीटने लगता है ताकि दबाव बनाकर उक्त व्यक्ति अथवा समूह को वैधानिक अवलोकन के दायरे से विमुक्त किया जा सके।

ये इन्ही के कारण है कि दशकों से भारत मे अल्पसंख्यक समुदाय अथवा किसी वंचित वर्ग के तथाकथित प्रतिनिधि होने का दंभ भरने वाले व्यक्ति विशेष की देश विरोधी, समाज मे घृणा को पोषित करने वाले, आपसी सौहार्द बिगाड़ने वाले किसी भी बेतुके अवलोकन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताकर मुक्त कंठ से उसका महिमामंडन किया जाता रहा है, ताकि धीरे धीरे ही सही इसे एक परंपरा के रूप में स्थापित किया जा सके जहां किसी वर्ग विशेष के व्यक्ति अथवा संस्था को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुसंख्यक समाज की भावनाएं आहत करने का तो अधिकार हो लेकिन बहुसंख्यक समाज को यह विशेषाधिकार कतई ना दिया जा सके।

परिणामस्वरूप आज की स्थितियां भयावह दिखाई पड़ती हैं, आए दिन सड़को पर आकर बहुसंख्यक समाज के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने सर तन से जुदा के नारे लगाए जाते हैं, आवश्यकता अनुसार इन उन्मादी नारो की व्ययहारिक अभिपूर्ती भी की जाती रही है ताकि यह विशेषाधिकार की परंपरा कायम रखी जा सके चाहे वो भय की बिनाह पर ही क्यों ना हो, इन सब का प्रयास केवल हमें इस वैचारिक आतंकवाद के जद में बांधे रखना है ताकि हम कभी इस बंधन को तोड़ कर सही मायने में अपने परिपूर्ण दर्शन को व्यवहारिक रूप से लागू ना कर सकें।

यह भी वास्तविकता है कि बिना किसी ठोस सपोर्ट सिस्टम के इसे इतने प्रभावी रूप से लागू कर पाना संभव नहीं हो पाता, इसलिए आंशिक ही सही संलिप्तता दूसरे आयामों की भी रही है, गाहे-बगाहे ऐसे प्रकरणों में न्यायालय का अवलोकन, राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं, कथित वैश्विक मानवाधिकार संगठनों की टिप्पणियां इसे प्रमाणित करती भी रही है।

मोटे तौर पर इन सब का सार यही है कि हम इस कम्युनिस्ट वैचारिक आतंकवाद की जद में घिरे हुए हैं, जिससे निकलकर बाहर आना इतनी ही बड़ी चुनौती है जितनी हमारी पश्चिमी अथवा उत्तरी सीमाओं पर, कई मायने में शायद उस से भी ज्यादा, इसे ऐसे ही देखने की आवश्यकता है।
जय जय भारत ।

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