स्तम्भ - 29/2024

इनके पास ढंग के वकील तक नहीं हैं कोर्ट में तर्क करने के लिए! सिंघवी ने कह दिया कि भेदभाव है, जज ने मान लिया भेदभाव है, अंतरिम आदेश आ गया।  

क्या दुकान के बोर्ड पर 'शुद्ध शाकाहारी ढाबा' लिखने से वो सुनिश्चित हो जाता है? क्या हिंदुओं के अपने धार्मिक भोजन के अधिकार नहीं हैं? क्या यह विषय केवल भेदभाव और शाकाहार-मांसाहार का ही था? 

थूकने और मूतने की वीडियो देख कर कोई हिंदू कैसे ऐसे दुकानों से सामान ले ले जिनकी आस्था या कहती है कि काफिरों के भोजन और धर्म को जितना संभव हो दूषित करो? 

इन जजों को दिखाओ और पूछो कि इतने वीडियो में हम 'व्यक्ति' को देखें या 'सामूहिक सोच' को? या मामला व्यक्तिगत है ही नहीं। इन्हें इनकी किताबों की पंक्तियाँ दिखाईं जाए और पूछा जाए कि आम मुसलमान इन्हें मानता है या नहीं। 

अगर जवाब 'ना' हो तो ऐसी घृणास्पद किताबों को प्रतिबंधित करने के आदेश दिए जाएँ। इतने वर्षों में हमारे पास ढंग के 10 अधिवक्ता नहीं है जो अपनी रील कटवाने और ट्विटर पर एक ही रील के पोस्ट हर दिन करने में व्यस्त ना हों।

जय जय भारत ... 🙏

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